बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 7)
पं. सत्तीदीन सुकुल, महाराज बर्दावान के यहाँ जमादार थे। यद्यपि बंगालियों को ‘सत्तीदीन’ शब्द के उच्चारण में अड़चन थी, वे ‘सत्यदीन’ या ‘सतीदीन’ कहते थे,
फिर भी ‘सत्तीदीन’ की उन्नति में वे कोई बाधा नहीं पहुँचा सके।
अपनी अपार मूर्खता के कारण सत्तीदीन महाराज के खजाञ्ची हो गये आधे, आधे इसलिए कि ताली सत्तीदीन के पास रहती थी, खाता एक-दूसरे बाबू लिखते थे।
सत्तीदीन इसे अपने एकान्त विश्वासी होने का कारण समझते थे। दूसरे हिन्दोस्तानियों पर भी इस मर्यादा का प्रभाव पड़ा।
बिल्लेसुर समझ-बूझकर इनकी शरण में गये।
सत्तीदीन सस्त्रीक रहते थे। दो-तीन गायें पाल रक्खी थीं। स्त्री ‘शिखरिदशना’ थीं, यानी सामने के दो दाँत आवश्यकता से अधिक बड़े थे।
होंठों से कोशिश करने पर भी न बन्द होते थे। पैकू के सुकूल। कनवजियापन में बिल्लेसुर से बहुत बड़े।
फलतः बिल्लेसुर को यहाँ सब तरह अपनी रक्षा देख पड़ी।
बिल्लेसुर सत्तीदीन के यहाँ रहने लगे।
ऐसी हालत में गरीब की तहजीब जैसी, दबे पाँव, पेट झुलाये, रीड़ झुकाये, आँखें नीची किये आते जाते रहे।
उठते जोबन में सत्तीदीन की स्त्री को एक सुहलाने वाला मिला। दो-तीन दिन तक भोजन न खला।
एक दिन औरतवाले कोठे जी गया।